11-11-85  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

‘दीपमाला’ - समीपता, सम्पन्नता और सम्पूर्णता का यादगार

सदा जागती जोत शिवबाबा बोले

आज विश्व की ज्योति जगाने वाले, जगे हुए दीपकों के मालिक अपनी दीपमाला को देख रहे हैं। वास्तविक ‘दीपमाला’ आप सबका यादगार है। तो दीपकों का मालिक सच्ची दीपमाला देख रहे हैं। यह दीपमाला विचित्र माला है। विचित्र मालिक और विचित्र माला है। वे लोग तो न मालिक को जानते हैं न माला को जानते हैं। मालिक को जाने तो माला को भी जाने। दीपमाला आप सबकी तीन विशेषताओं का यादगार है|

एक है समीपता- समीपता में स्नेह समाया हुआ है। अगर माला में स्नेह का, समीपता का आधार न हो तो माला नहीं बन सकती। मणका मणके से वा दीपकदीपक से जब स्नेह से समीप आता है तब ही माला कहलाई जाती है। स्नेह अर्थात् ‘समीपता’। स्नेह की निशानी समीपता ही होती है। एक समीपता। दूसरी - सम्पन्नता। दीपमाला सम्पन्नता की निशानी है। सिर्फ एक लक्ष्मी धन की देवी नहीं है लेकिन आप सभी धन से सम्पन्न देवियाँ हो। धन देवी होने के कारण धन्य देवी भी गाये जाते हैं। तो धन देवी-धन्य देवी यह सम्पन्न्ता की निशानी है। तीसरी बात सम्पूर्णता। सम्पूर्णता अर्थात् सदा जगे हुए दीपक। बुझे हुए दीपकों की दीपमाला नहीं कही जाती। जगे हुए दीपक की दीपमाला कही जाती। तो सदा एक रस जगे हुए दीपकों की निशानी - सम्पूर्णता है। तो दीपमाला समीपता, सम्पन्न्ता और सम्पूर्णता की विशेषताओं का यादगार है। इसलिए दीपमाला को बडा दिन कहा जाता है।

जो भी उत्सव मनाते हैं उनको बड़ा दिन कहा जाता है। क्योंकि विश्व के बड़ों का दिन है। विश्व में सबसे बड़े ते बड़े कौन हैं? आप सभी अपने को समझते हो? तो यह तीनों ही विशेषतायें स्वयं में अनुभव करते हो? आप सभी का यादगार मना रहे हैं। याद स्वरूप बनने वालों का यादगार बनता है। ऐसे याद स्वरूप बने हो? वा अभी भी कहेंगे बन रहे हैं, क्या कहेंगे? जग गये तो अंधकार समाप्त हो गया ना। जग गये अर्थात् अंधकार समाप्त। जग गये वा टिमटिमाने वाले हो? टिमटिमाते हुए दीपक कोई पसन्द नहीं करता। अभी बुझा, अभी जगा। लाइट भी अगर एकरस नहीं जलती तो पसन्द नहीं करेंगे। उसको बन्द कर देंगे ना। जगमगाते हुए दीपक और टिमटिमाते हुए दीपक। क्या पसन्द करेंगे?

बड़े दिन की छुट्टी क्यों मनाते हैं? जो भी बड़े दिन आते हैं उसमें छुट्टी मनाते हैं। और छुट्टी की खुशी होती है। हर मास के कैलेन्डर में पहले सब क्या देखते हैं? बड़े दिन कितने हैं, छुट्टियाँ कितनी हैं? तो बड़ा दिन अर्थात् छुट्टी का दिन। मेहनत से छुट्टी का दिन। मेहनत से छुट्टी का दिन और मुहब्बत के मजे में रहने का दिन। जब कमज़ोरियों को वा माया को छुट्टी दे देते हो तो मेहनत खत्म और मजे के दिन शुरू हो जाते हैं। बड़ा दिन अर्थात् छुट्टी का दिन। इसलिए यादगार रूप में भी छुट्टी मनाई जाती है। छुट्टी के दिन क्या करते हैं? मौज मनाते हैं ना। छुट्टी का दिन आराम का दिन होता है। आपका आराम क्या है? आप आराम करते हो? या आ-राम करते हो? आराम नहीं ‘आ राम-आ राम’ करते हो ना। इसी को ही वास्तविक ‘आराम’ कहते हैं। दीपमाला में और क्या करते हो? मुबारक, बधाईयाँ देते हो ना! कोई भी उत्सव आता है, जब एक दो से मिलते हैं तो बधाई देते हो ना! यह रिवाज भी क्यों चला है? जब भी कोई को मुबारक देते हो तो कैसे देते हो? गले मिलते, हाथ भी मिलते, मिठाई खिलाते, खुशी मनाते हैं। अपनी याद और प्यार देना और लेना इसमें भी मुबारक मानते हैं। तो संगम पर अर्थात् बड़े दिनों पर आप सभी सदाकाल के लिए माया के विदाई की बधाई मनाते हो। विजयी बनते हो। इसलिए विजयी बच्चों को बापदादा सदा मुबारक देते हैं। यादप्यार देते अर्थात् मुबारक देते। बापदादा रोज मुबारक देते हुए बापदादा हर रोज बच्चों को कौन-सा शब्द कहते हैं? ‘मीठेमीठे’ कह मुख मीठा कर देते हैं। बापदादा रोज मीठे-मीठे शब्द ही कहते हैं। मीठा का यादगार है। मुख मीठा करते रहते हो। ऐसी दीपमाला मनाने वाले हो वा आपकी दीपमाला मनाई जा रही है। आपने बाप के साथ मनाई है, इसलिए विश्व आपकी यादगार मनाता, समझा दीपमाला का अर्थ क्या है - बनना ही मनाना है।

दीपमाला के लिए आये हो! बापदादा भी दीपको की माला को देख हर्षित होते हैं। मिलना ही मनाना है। सभी मौजों के घर में पहुँच गये हो ना। मधुबन अर्थात् मौजों का घर। मन में मौज है तो हर कार्य में मौज है। किसी भी प्रकार की मूँझ नहीं। क्यों-क्या यह है - मूँझ। ओहो, आहा यह है मौज। क्यों, क्या तो अब नहीं है ना। दशहरा तो मना के आये हो ना। अभी दिवाली मनाने आये हो। दशहरे के बिना दीवाली नहीं होती। दशहरा समाप्त करके दीवाली मनाने आये हो। विजयी हो गये हो ना! अच्छा।

बच्चों की वृद्धि होती जा रही है और होती रहेगी। वृद्धि प्रमाण विधि भी बनानी पड़ती है। अव्यक्त होते अभी 17 वर्ष का 17वाँ पाठ पूरा हुआ। बाकी क्या रहा है? फिर भी बापदादा बच्चों के स्नेह के कारण अव्यक्त होते भी व्यक्त में टेम्प्रेरी रथ में 17 साल सवारी की। 17 साल कम तो नहीं। समय और शरीर की सीमा भी होती है। नाम तो अव्यक्त कहते और मिलने चाहते व्यक्त में। यह क्यों? सहज लगता है इसलिए? फिर भी बापदादा नये-नये बच्चों का उल्हना निभाने के लिए आते रहते हैं। अभी 18 तारीख को फिर 18 साल शुरू होगा। 18 अध्याय क्या है? सभी तैयार हो ना। सेवा समाप्त कर ली? अभी बाप समान अव्यक्त रूप बन जाओ। अव्यक्त रूप की सेवा की? अभी तो अव्यक्त रूप को भी व्यक्त में आना पड़ता है। अव्यक्त रूपधारी बन नष्टोमोहा स्मृतिर्लब्धा अर्थात् स्मृति स्वरूप। अभी यह सेवा रही हुई है। पदयात्रा की सेवा तो कर ली, अब रूहानी यात्रा का अनुभव कराना है। अभी इसी यात्रा की आवश्यकता है। इसलिए अभी बापदादा भी अव्यक्त विधि प्रमाण बच्चों से मिलन मनायेंगे। वृद्धि प्रमाण विधि को परिवर्तन करना ही होता है। बच्चों का अधिकार है - ‘मुरली’। मुरली द्वारा मिलना और अव्यक्त दृष्टि द्वारा, यह दोनों मिलन वरदान की अनुभूति करा सकते हैं। इसलिए अव्यक्त स्थिति में स्थित हो अब दृष्टि द्वारा वरदानों का अनुभव करो। नहीं तो सुनने की जिज्ञासा से दृष्टि का महत्व कम अनुभव कर सकते हो।

दो गायन हैं- नजर से निहाल और मुरली का जादू! इसलिए अब दृष्टि द्वारा वरदान पाने के अधिकारी बनो। जितना स्वयं अव्यक्त स्थिति में स्थित होंगे उतना अव्यक्त दृष्टि की भाषा को कैच कर सकेंगे। यह दृष्टि का वरदान सदाकाल का परिवर्तन का ‘वरदान’ है। वाणी का वरदान कभी याद रहता कभी भूल जाता है। लेकिन अव्यक्त रूप बन अव्यक्त दृष्टि से प्राप्त हुआ वरदान सदा स्मृति स्वरूप समर्थ स्वरूप बनाता है। अभी दृष्टि से दृष्टि की भाषा को जानो। स्थापना में क्या हुआ? दृष्टि की भाषा से दृष्टि के जादू से स्थापना का कार्य आरम्भ हुआ। समझा अच्छा फिर सुनायेंगे 18 अध्याय की सेवा क्या है।

बच्चे घर का शृंगार हैं। मधुबन का शृंगार मधुबन में पहुँच गये हो। भल मनाओ, गाओ-नाचो, लेकिन अव्यक्त रूप में। न्यारे और प्यारे रूप में। जो दुनिया करती है वह न्यारापन नहीं। खेलो, खाओ, हंसो, नाचो लेकिन ‘न्यारे और प्यारे’ रहो। बापदादा सभी सेवाकेन्द्रों के देश-विदेश के सभी बच्चों को, अपने गले के विजयी माला, दीपमाला को देखते हुए हर्षित हो रहे हैं और हरेक विजयी जगे हुए दीपक को संगमयुग और नई दुनिया के सर्व जन्मों की मुबारक दे रहे हैं। सदा समीप रहने वाले, सदा सम्पन्न रहने वाले, सदा सम्पूर्ण रहने वाले, तीनों विशेषताओं से भरपूर बच्चों को त्रिमूर्ति सम्बन्ध से सदाकाल की मुबारक कहो, बधाई कहो, ग्रीटिंग्स कहो, सदा है और सदा रहेगी।

बापदादा भी धनवान बच्चों को ‘‘धन्य हो धन्य हो’’ की मुबारक दे रहे हैं। सदा मीठे हैं, मीठे बनाने वाले हैं। मीठे बोल, मीठी भावना से सबको मन और मुख मीठा कराने वाले, ऐसे सदा मीठा भव! बापदादा सभी बच्चों की जगमगाती हुई ज्योति देख रहे हैं। दूर होते भी अनेक बच्चों के जगमगाते हुए ज्योति समूह के रूप में बापदादा के सामने अभी भी हैं। सभी बच्चों के मुबारक के संकल्प, बोल, पत्र और कार्ड बापदादा के सामने हैं। सभी देश-विदेश के बच्चों की दीपमाला की मुबारक के रिटर्न में अक्षौणी बार बापदादा मुबारक दे रहे हैं। नाम नहीं लेते लेकिन नाम बापदादा के सामने हैं। हर एक के नामों की माला भी बापदादा के गले में पिरोई हुई है। भिन्न-भिन्न कार्ड्स वतन की दीवार में लगे हुए हैं। लेकिन दिल का आवाज़ दिलाराम तक पहुँच गया। दूर सो समीप बच्चों और सम्मुख आने वाले बच्चों, दोनों को स्नेह सम्पन्नता और सम्पूर्णता भरी यादप्यार और नमस्ते।’’

दादियों से - माला के विजयी रत्न सदा ही विशेष गाये और पूजे जाते हैं। ऐसी विशेष पूज्य आत्मायें हो। जब कोई ऐसा दिन आता है तो जितना अव्यक्त स्थिति में स्थित होते हो उतना भक्त आत्माओं के आह्वान का अनुभव होता है! भक्तों की शुभ भावनायें वा कामनायें बाप द्वारा पूर्ण कराने के लिए विशेष वायब्रेशन आने चाहिए। आखिर सभी भक्त आत्मायें बाप के साथ अपनी पूज्य आत्माओं को प्रत्यक्ष रूप में देखेंगी। वर्णन करेंगी कि वही हमारे इष्ट देव हैं। इष्ट देव किसको बनाते हैं? इष्ट क्यों कहते हैं? क्योंकि उसी एक में - एक बल एक भरोसा होता है। उसी में परिपक्व रहते हैं। उन्हों के लिए वही एक सब कुछ होता है, ऐसे जो एक बाप में इष्ट भावना वाले रहे हैं, इष्ट स्थिति वाले रहे हैं वही ‘इष्ट देव’ बनते हैं। इसको कहते हैं -एक बल एक भरोसा! इष्ट देव की निशानी यह है जो एक बल एक भरोसे की स्थिति में, निश्चय में, सेवा में, परिपक्व रहे हैं। इसलिए इष्ट देव को मानने वाले भक्त भी एकाग्र रहते हैं। यहाँ वहाँ नहीं भटकते हैं। एक में अटल रहते हैं। बाप प्रत्यक्ष होंगे लेकिन बाप के साथ-साथ सब इष्ट देव, इष्ट देवियाँ भी प्रत्यक्ष होंगे। यह भी नशा चाहिए कि हम श्रेष्ठ आत्माओं का आह्वान हो रहा है। और हम ही बाप द्वारा उन्हों को रिटर्न दिलाने वाले हैं। दिलायेंगे तो बाप द्वारा ही लेकिन निमित्त बनते हैं - इसलिए वह इष्ट देव के रूप में पूजे जाते हैं। विशेष दिनों पर जैसे विशेष भक्त लोग व्रत रखते हैं, साधना करते हैं। एकाग्रता का विशेष अटेन्शन रखते हैं। ऐसे सेवाधारी बच्चों को भी वह वायब्रेशन आने चाहिए। हम ही हैं! यह अनुभव होना चाहिए। बापदादा तो है ही लेकिन साथ में अनन्य बच्चे भी हैं। यह प्रैक्टिकल में महसूसता आनी चाहिए। जो आशीर्वाद, आशीर्वाद का रिवाज चला है, वह ऐसे अनुभव होगा जैसे सम्पन्न होने के कारण ब्रह्मा बाप द्वारा चलते-फिरते सबको स्वत: आशीर्वाद का अनुभव होता था। तो आप भी चलते-फिरते ऐसे अनुभव करो जैसे बाप द्वारा कुछ न कुछ प्राप्ति करा रहे हैं। प्राप्ति ही आशीर्वाद है। और कुछ मुख से नहीं कहेंगे लेकिन प्राप्ति का अनुभव कराने के कारण सबके मुख से - ‘‘यही हैं, यहीं हैं’’ के गीत निकलेंगे। वह भी दिन आने वाले हैं। साक्षात्कार मूर्त्त अभी होने चाहिए। अभी सेवा साक्षात्कार मूर्त्त द्वारा हो। जैसे शुरू में चलते-फिरते साक्षात्कार मूर्त्त देखते थे। ब्रह्मा को नहीं देखते थे, कृष्ण को देखते थे। कृष्ण पर मोहित हुए ना! ब्रह्मा पर तो नहीं हुए। ब्रह्मा गुम होकर कृष्ण दिखाई देता था तब तो भागे ना! कृष्ण ने भगाया यह तो राइट है। क्योंकि ब्रह्मा को ब्रह्मा नहीं देखते कृष्ण देखते थे। तो यह साक्षात्कार स्वरूप हुआ ना! उसी ने इतना मस्त बनाया, भगाया। साक्षात्कार ने ही सब कुछ छुड़ाया। भक्ति का साक्षात्कार सिर्फ देखने का हेता है। लेकिन ज्ञान का होता है देखने के साथ पाना - यही अन्तर है। सिर्फ देखा नहीं, पाया। कृष्ण हमारा है, हम गोपियाँ हैं, इसी नशे ने स्थापना कराई। हम वही हैं, हमारे ही चित्र हैं। तो ऐसे ही साक्षात्कार द्वारा अभी भी सेवा हो। सुनने द्वारा प्रभाव तो पड़ता ही है लेकिन परिवर्तन नहीं होता है। अच्छा-अच्छा कहते हैं लेकिन अच्छा बनते नहीं। जब उन्हें साक्षात्कार में प्राप्ति होगी तो बनने के बिना रह नहीं सकेंगे। जैसे आप सब बन गये हो ना! तो अभी चलते-फिरते फरिश्ते स्वरूप का साक्षात्कार कराओ। सिर्फ भाषण वाले नहीं लेकिन साक्षात्कार स्वरूप दिखाई दे। भाषण करने वाले तो बहुत हैं लेकिन आप हो भासना देने वाले। ऐसे जो बनते हैं वही नम्बर आगे लेते हैं। सिर्फ क्लास कराने से भासना नहीं आती, क्लास सुनते भी हरेक की चाहना होती कि भासना मिले, तो अब भाषण बदलकर भासना दो। तब समझेंगे कि यह अल्लाह लोग हैं। अल्लाह लोग अर्थात् न्यारे। अभी तो कह देते हैं - यह भी अच्छा वह भी अच्छा। मिलाते रहते हैं लेकिन अभी भासना स्वरूप बन जाओ। प्राप्ति का अनुभव कराओ।